प्रशांतमूर्ति, योगी सम्राट आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज (छाणी)

Profile

Name प्रशांतमूर्ति, योगी सम्राट आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज (छाणी)
Date of Birth 01/Nov/1888
Name before Diksha श्री केवलदास जैन
Place of Birth छाणी, जिला उदयपुर
Brhamcharya Vrat (Date, place and name of guru)
01-Jan-1919 / श्री पार्श्वनाथ भगवान के समक्ष स्वर्णभद्र कूट श्री सम्मेदशिखर जी पर्वत /
Kshullak Diksha (Date, place and name of guru)
01-Jan-1922 / गढ़ी, जिला – बांसवाड़ा (राज ) /
Muni Diksha (Date, place and name of guru)
24-Sep-1923 / सागवाड़ा जिला डूंगरपुर (राजस्थान ) /
Acharya Diksha (Date, place and name of guru)
01-Jan-1926 / गिरिडीह झारखण्ड /
Chaturmas (year, place) 1922-(क्षुल्लक अवस्था)परतापुर, 1923-सागवाड़ा, 1924-(मुनि एंव आचार्य अवस्था) इंदौर, 1925-ललितपुर, 1926-गिरीडीह, 1927-परतापुर (बांसवाड़ा), 1928-ऋषभदेव, 1929-सागवाड़ा, 1930-इंदौर, 1931-ईडर, 1932-नसीराबाद, 1933-ब्यावर, 1934-सागवाड़ा, 1935-उदयपुर, 1936-ईडर, 1937-मलियाकोट, 1938-पारसोला, 1939-भींडर, 1940-तालोद, 1941-ऋषभदेव, 1942-ऋषभदेव, 1943-सलुम्बर
Samadhi (Date, place)
17-May-1944 / सागवाड़ा (राजस्थान)

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About प्रशांतमूर्ति, योगी सम्राट आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी महाराज (छाणी)

बीसवीं सदी में दिगंबर जैन मुनि परंपरा सम्पूर्ण भारत में कुछ अवरुद्ध सी हो गयी थी। दिगंबर साधना का संदर्शन मात्र मूर्तियों में होता था, या फिर शास्त्रों की गाथाओं में। इस असंभव को तीन महान दिगंबर आचार्यों ने संभव बनाया; पश्चिम भारत में आचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर ने, दक्षिण भारत में आचार्य श्री 108 शांतिसागर (चारित्र चक्रवर्ती) जी ने और उत्तर भारत में आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी छाणी ने। यह भी अत्यंत शुभमय और प्रेरक प्रसंग है कि आचार्य श्री 108 शांतिसागर (चारित्र चक्रवर्ती) और आचार्य श्री 108 शांतिसागर छाणी के साधना-आदित्य का उदय समकालिक है।

प्रशममूर्ति, वात्सल्य वारिधि, बाल ब्रह्मचारी, तपोनिधि संत, उत्तर भारत के प्रथम दिगंबर आचार्य श्री शांतिसागर जी छाणी की जीवनगाथा, आस्था, निष्ठा, साहस और दृढ़ संकल्पों की जीवंत गाथा है। वे इस शताब्दी के ऐसे महान ऋषि थे, जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तर भारत को दिगंबर साधना के महत्व से परिचित कराया तथा अपना सम्पूर्ण त्यागमय जीवन स्वात्मबोध के साथ-साथ जन चेतना के परिष्कार को किया समर्पित भी। पूज्यपाद छाणी महाराज ने रत्नत्रयी साधना पथ पर अपने पगचिन्ह उत्कीर्ण किए- पहली बार उत्तर भारत की धरती पर और दिगंबर संत परंपरा को पुनर्जीवित करने के साथ-साथ जन-जन को सम्यक्त्व के दर्शन से परिचित भी कराया।


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संपूज्य चरण आचार्यश्री शांतिसागर जी छाणी महाराज की परंपरा प्रशस्त है। द्वितीय पट्टाचार्य सूर्यसागर जी बहुश्रुत विद्वान थे। उन्होंने लगभग पैंतीस ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनके उपरांत आचार्यश्री विजयसागर जी, आचार्य श्री विमलसागर जी (भिण्ड ) एवं आचार्य श्री सुमतिसागर जी आविर्भूत हुए, जिन्होंने उनकी परंपरा को विस्तार दिया। आचार्यश्री सुमतिसागर जी के शिष्य आचार्यश्री विद्याभूषण सन्मतिसागर जी हुए, जिन्होंने बड़ागांव में त्रिलोकतीर्थ की अनुपम रचना के निर्माण को अपना आशीर्वाद दिया। छाणी महाराज की परंपरा के वर्तमान षष्ठ पट्टाचार्य पूज्यपाद श्री ज्ञानसागर महाराज हैं, जिनके पावन आशीर्वाद और प्रेरणा से आचार्य प्रवर की समाधि का हीरक महोत्सव पूरे देश में आयोजित किया जा रहा है। पूज्य गुरुदेव की समाधि के हीरक महोत्सव के प्रसंग पर उनकी अहर्निश वंदना है, नमोस्तु है। वर्ष भर चलने वाले आयोजनों का संबोध है; उनकी प्रकीर्तित प्रज्ञा-पारमिता के प्रकर्ष का अभिवंदन, प्रज्ञा और प्रतिभा के धनी पूज्य आचार्य श्री के ज्ञान चारित्र्यमय पुरुषार्थ का अभिनंदन, जिससे जन-जन के मानस में नमन का ऐसा उत्कृष्ट भाव सृजित हो, जो अहं को गला कर, अर्हम् पद के राजमार्ग पर कर सके प्रवृत्त-सभी को। ऐसी महान चारित्रात्मा के पाद-पद्मों की वंदना है; त्रिबार नमोस्तु है।

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